हर कही हमें एक इंसान नजर आ ही जाता है जो दिन रात गाड़ी चलता है मेहनत करता हैं फिर चाहे वो रिक्शावाला हो, ताँगेवाला हो या कोई सब्जियां बेचने वाला ऐसा हर इंसान अपने पूरे घर को पालता पोस्ता हैं, मेरी ये कविता उन्ही इंसानों के लिए हैं… कल Father’s day भी हैं तो सभी उन पिताओं को भी मेरी ये कविता समर्पित हैं जो अपने बच्चों के लिए दिन रात मेहनत करते है और उन्हें एक अच्छी ज़िंदगी देने की कोशिश करते है..!!!
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शीर्षक – गाड़ी वाला इंसान…!!
दो पहियों की गाड़ी पर वो,
चार लोगों का पेट है पालता,
छोटा से कंधों पे अपनी दुनिया का वो बोझ संभालता,
गर्मी देखे ना छाँव सुहानी,
बारिश से भी वो पेंचे लड़ाता,
दो कदमों से जानें कितनों को उनकी मंजिल तक पहुँचाता,
सुबह से शाम बस चलता जाता,
प्याज़ रोटी से भूख मिटाता,
अपनी उखड़ी साँसों से कितनों का जीवन संवारता,
भला भी सुनता, बुरा भी सुनता,
खुली आँखों से सपनें भी बुनता,
उन्हीं सपनों के लिए वो खून को भी पसीना समझता,
थका हारा जब घर लौटता,
अपनी परेशानी कुछ न बोलता,
फिर भी सूखे होंठो से बच्चों को लोरी गाकर सुनता,
रात भर चाँद देखता,
हर सुबह नया सूरज पाता,
हार न माने चाहे जो हो, तक़दीर के आगे सर ना झुकाता,
दो पहियों की गाड़ी पर वो,
चार लोगों का पेट है पालता,
छोटा से कंधों पे अपनी दुनिया का वो बोझ संभालता…!!
✒©मुसाफ़िर
Pc : google image
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